ओम थानवी
आज जेएनयू में कई छात्रों और शिक्षकों से बात हुई। दो छात्र वहां मौजूद थे, जहाँ हल्ला हुआ। दोनों ने कहा कि कश्मीर के नारे वहां लगे, पर पाकिस्तान जिंदाबाद के नहीं। वीडियो का भरोसा कई लोग न करते मिले, एक ही चैनल वहां कैसे तैनात था यह पहलू भी वीडियो एडिटिंग पर शक पैदा करता है। टीवी चैनल छात्रों के ऐसे आयोजनों को कब कवर करते हैं।
बहरहाल, कोई शिक्षक या छात्र ऐसा नहीं मिला जो पाकिस्तान के नारे लगाने को उचित समझता हो - चाहे वे लगे हों या न लगे हों।
जहाँ तक मेरी अपनी राय है (जिसे बिना जाने ही कुछ अतिउत्साही तो अपने स्वयंभू निष्कर्ष पर भी जा पहुंचे!), तो मेरा स्पष्ट मानना है कि नागरिकों की आजादी का दायरा बहुत व्यापक है। इस तरह छात्रों का भी। अगर वे कश्मीर की आजादी के नारे लगाते हैं, या अफ़ज़ल की फाँसी का विरोध करते हैं तो जहाँ तक उनके अधिकार का सवाल है इस अभिव्यक्ति में कुछ गलत नहीं। हालाँकि मैं कश्मीर की आजादी मांग को उचित नहीं मानता, पर फांसी के विरोध को सही मानता हूँ। ठीक इसी तरह आप या कोई भी उनसे असहमत हो सकता है, यहाँ तक कि कुछ समय बाद उनमें से कोई खुद अपने आप को अलग राय का पा सकता है। जैसा कि कल मैंने लिखा भी कि छात्र जीवन में विचार बनते-बिगड़ते ही आकार लेते हैं।
पाकिस्तान जिंदाबाद के नारों की पुष्टि भले नहीं हुई, फिर भी अपनी राय साफ रख दूँ - भारत में कोई ऐसे नारे नहीं लगा सकता, लगाए तो सर्वथा अनुचित होगा।
लेकिन एक बदनाम टीवी चैनल के संदिग्ध वीडियो के आधार पर कोई छात्र जमात को ही नहीं, देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय पर ताला जड़ने की बात कहे तो यह दुराग्रह की हद होगी। लोग जानते हैं कि प्रगतिशील विचारों के कारण जेएनयू बरसों से संघ परिवार की आँख की किरकिरी बना हुआ है। अब अपने लोग कोतवाल बने हैं तो हिसाब चुकता करने की बेचैनी मानो बढ़ चली है। अफसोस यही है कि राष्ट्रपिता गांधी के हत्यारे गोडसे का मंदिर बनने पर तो इनका राष्ट्रप्रेम दुबक जाता है, पर छात्रों के एक आयोजन का हल्लाछाप वीडियो देखकर वीरबालक की मुद्रा में विलाप की मानिंद जाग जाता है।
*ओम थानवी के फेस बुक वाल से
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