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Wednesday, February 17, 2016

JNU : अपना नाकामी छिपाने के लिए खुन का खेल

प्रकाश नारायण सिंह

सियासत के कायदे वही हैं जो राजनीति को रास्ता दिखाएं. जीत के जज्बे को पैदा करने से लेकर सत्ता हथियाने तक धर्म, जाति और ‘राष्ट्रवादी हुंकार’ एक अहम जरिया रहा है.

जब आप जीते थे तो आप सभी की स्याही से सूबे की तकदीर लिखने की उम्मीद थी. आप लोगों की महत्वकांक्षा के नाग ने सच्चे लोकतंत्र को, गरीबी को, भूख को, सुरक्षा को, इंसानियत को, मानवता को डंस लिया. हां, हमारे सियासी मालिक आप ही की बात कर रहा हूं. भय को, भूख को, भ्रष्टाचार को दफनाने के बजाए आप सभी ने हमारी उम्मीदों को दफना दिया. हमने तो आपको अपना हुक्मरान माना, आपको सिर आंखों पर बैठाया, अपनी समस्याओं का समाधान बनाया लेकिन आप उत्पीड़ित अस्मिताओं के निर्मम शोषण का उपकरण बन गए सियासी मालिक.. बताइए ना हमसे चूक कहां हो रही है. समझाइए अब हम क्या करें..

राष्ट्रभक्ति का सर्टिफिकेट आप तो मत ही दीजिए?

फिलहाल ‘हस्तिनापुर’ की सियासत कठघरे में है. विकास के मुद्दे पीछे छूट गए. धर्म और ‘राष्ट्रवादी हुंकार’ का कॉकटेल बनाया जा रहा है. आम लोगों के मुफलिसी के इस दौर में महंगी आलीशान गाड़ियों में सुरक्षा घेरे के बीच चलना और सियासी शिगूफे छोड़ अपना वर्चस्व साबित करने की कोशिश करना कथित राष्ट्रवादी और धार्मिक ठेकेदारों का अहम पेशा रहा है. ठेकेदारी की ये दुकान छोटी से लेकर बड़ी तक है. जिसकी जैसी दुकान उसकी सियासत में उतनी हिस्सेदारी. विहिप, बजरंग दल से शुरू हुई ये सियासी सेना श्रीराम सेना, ये सेना वो सेना पता नहीं कौन कौन सेना तक बन गई…..आजकल तो हमारे यूपी में तीर धनुष की ट्रेनिंग दी जा रही है आईएसआईएस से लड़ने के लिए.. अरे भाई जब तीर धनुष ही काफी हैं तो भारतीय सेना क्या धान काटेगी? क्या इनको भारतीय सेना पर भरोसा नहीं रहा? खैर.. फिलहाल मुद्दा ये नहीं है.

मैं पहले ही साफ कर दूं कि संविधान के खिलाफ हर नारे का मैं विरोध कर रहा हूं. लेकिन इन नारों के सहारे जो सियासत हो रही है उसे बेहद खतरनाक मानता हूं. बंद करिये सर्टिफिकेट देना.. ये देशद्रोही वो देशद्रोही.. मैं ज्यादा राष्ट्रभक्त.. मैं हिन्दू भक्त.. मैं फलां भक्त.. अरे मैं से बाहर निकलिए और हम के बारे में सोचिए. जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय से रोशनी निकलती है. और रोशनी का वजूद ही अंधेरे के खिलाफ प्रतिरोध है. धर्मांध और कट्टर लोगों के मन में इस विश्विद्यालय के लिए बराबर नफरत क्यों पलती है? शटडाउन जेएनयू का हैशटैग कितना खतरनाक है ये सोचकर ही मन कांप जाता है. राष्ट्रवादी समय में ‘हम’ और ‘वो’ शब्द बेहद शातिरता के साथ इस्तेमाल किए जा रहे हैं. आम लोगों और देश के बीच की रेखा को भी धुंधला किया जा रहा है. बस जो आपके विचार के साथ नहीं है वह देशद्रोही. ये कैसा सर्टिफिकेटवाद है साहब. मेरा सिंगल सवाल.. नारों के मास्टर माइंड को पकड़ने के लिए क्या अब एफबीआई के जवान आएंगे! आपकी रॉ से लेकर दिल्ली पुलिस तक के हत्थे वह क्यों नहीं चढ़ रहा है? दिल्ली पुलिस महज चंद घंटे में जेएनयू के प्रेसिडेंट कन्हैया को गिरफ्तार करती है जिसका नारे लगाते कोई अभी तक वीडियो भी नहीं आया लेकिन जो नारे लगा रहे थे उन्हें अब तक गिरफ्तार नहीं किया गया है. उनको आप गिरफ्तार करने से क्यों बच रहे हैं. हमें पता है कि कश्मीर में पीडीपी के साथ सरकार बनाने के लिए बन रहे माहौल में दिक्कत आएगी. सत्ता के लिए देशभक्ती का तड़का मत लगाइए. ये आग से मत खेलिए हुजूर.. आपके बच्चे तो ऑक्सफोर्ड में पढ़ते हैं. कमांडों की सुरक्षा के बीच में रहते हैं.. हमारे बच्चे जलेंगे.. मरेंगे.. और कटेंगे.

कानून के रक्षक संस्कृति के रक्षक बन कर पटियाला हाउस कोर्ट में पत्रकारों के साथ मारपीट की. और उतना ही नहीं आपके विधायक जी तो ऐसे ‘कथित आत्मरक्षा’ में पीटाई करने लगे जैसे मुंबईया डॉन हों. वकीलों की आड में आपके ‘सेवकों’ की करतूत से भारत मां गौरवान्वित होंगी.. क्यों हुई होंगी न.. बोलिये ना.. आप नहीं बोलेंगे क्योंकि आपको उतना ही बोलना है जिससे की सत्ता हथियाने में सफलता मिलती रहे. हमें पता है कि निरंकुश होने की चाह वाली किसी भी सत्ता की आंख में सबसे पहले पत्रकार, लेखक और बुद्धिजीवी ही खटकते हैं. क्योंकि यही वे लोग हैं जो सत्ता की पोल खोलते हैं. जनता की आवाज को सत्ता के गलियारे में शोर बनाते हैं. और मधुर संगीत के साथ सोमरस में डूबी मदहोश सत्ता को कर्कश शोर से चिढ़ होती है.

लोकतंत्र का ये हिस्सा भी पढ़ लीजिए!

मुझे तो बस इतनी भर इल्तिजा करनी है कि शोर और चीत्कार के बीच कुछ आवाजें कहीं सहमी और दुबकी हुई हैं. बेआवाज की मानिंद बस उस बेआवाज की आवाज सुन लीजिए. बेशक होंठ सिले नहीं गए हैं लेकिन आपके गुंडों की खौफ से लरज रहे हैं. आप समझ रहे हैं न..आप तो मजलुम के घर पैदा हुए थे. आप गरीब और कमजोर के डर को महसूस कर रहे हैं साहेब.

सुनिए जवाहरलाल नेहरू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया की मां ने कहा है, “हमें जब से पता चला है कि कन्हैया को गिरफ्तार कर लिया गया है, तब से हम लगातार टीवी देख रहे हैं. मुझे उम्मीद है कि पुलिस उसे बहुत ज्यादा नहीं पीटेगी. उसने कभी भी अपने माता पिता का अपमान नहीं किया, देश की बात तो भूल ही जाइए. कृपया मेरे बेटे को आतंकवादी नहीं बोलिए. वह यह नहीं हो सकता है.” मीना एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं और साढ़े तीन हजार रूपये प्रति माह कमाती हैं. उनके 65 वर्षीय पति लकवाग्रस्त होने की वजह से सात सालों से बिस्तर पर हैं.

आप तो संसद में घुसे तो कैमरे की चमकती रोशनी में माथा टेका. कसम से.. मेरा दिल भर आया. मैं उसे ड्रामा नहीं समझा. चलिए अब आपको कुछ लोकतंत्र का इतिहास दिखाता हूं. देख लीजिएगा चश्मा साफ करके. 1965 में जब अमेरिका ने वियतनाम के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा था, तब अमेरिका की मिशिगन यूनिवर्सिटी के छात्रों और शिक्षकों ने यूनिवर्सिटी कैंपस में ही ऐसे लेक्चर्स की शुरूआत की जिसमें लड़ाई के खिलाफ बातें की जाती थीं. लेकिन उनके इस विरोध को न ही देशद्रोह माना गया और न उन पर कोई कार्रवाई हुई बल्कि यूनिवर्सिटी ने उन्हें उसे जारी रखने की इजाजत दे दी.

1965 से 1973 के बीच पूरे अमेरिका के विश्वविद्यालयों में वियतनाम युद्ध के खिलाफ विरोध प्रदर्शन होने लगे, छात्रों ने इस दौरान अमेरिकी झंडे भी जलाए. लेकिन तब भी किसी पर देशद्रोह का मुकदमा नहीं किया गया. सिर्फ उन छात्रों को गिरफ्तार किया गया जो सीधे तौर पर हिंसा में शामिल थे. इसी तरह फरवरी 2003 में इराक युद्ध के खिलाफ भी अमेरिकी विश्वविद्यालयों में छात्रों ने प्रदर्शन किया लेकिन तब भी छात्रों के उस विरोध को देशद्रोह की श्रेणी में नहीं रखा गया.

आर्थिक मुदे पर नाकाम है सरकार?

अब हम आपको बताएंगे कि जेएनयू जैसे विवाद अब रोज आप क्यों चमकाएंगे. खैर चलिए कुछ उस पर आपका ध्यान दिला दूं जो आपको करना था लेकिन किये क्या.. देश की आर्थिक नब्ज बताने वाले शेयर बाजार का सूचकांक सेंसेक्स फिसलकर उस स्तर से भी नीचे पहुंचा हुआ है, जिस स्तर पर मोदी सरकार ने सत्ता संभाली थी. प्रसिद्ध इतिहासकार राचंद्र गुहा के इस ट्वीट पर ध्यान दीजिए..

The comments by the Home and HRD Ministers on JNU only demonstrate that in this Cabinet, patriotism is the first refuge of the incompetent.

— Ramachandra Guha (@Ram_Guha) February 13, 2016
रुपया भी सबसे निचले स्तर के करीब है. एक डॉलर की कीमत करीब 68 रुपए है. औद्योगिक विकास दर भी लाल निशान दिखा रहा है. मई 2014 में 4.7 फीसदी रहने वाली औद्योगिक विकास दर दिसंबर में माइनस 1.3 फीसदी रही. इस साल आर्थिक विकास दर यानी जीडीपी का अनुमान भी भी घटाकर सात से साढ़े सात फीसदी के बीच कर दिया गया है. पहले इसके आठ से साढे आठ फीसदी के बीच रहने का अनुमान था. सरकारी बैंकों का बढ़ता घाटा भी मोदी सरकार की मुश्किल बढ़ा रहा है. दिसंबर में खत्म तिमाही में आठ सरकारी बैंकों का घाटा कुल मिलाकर दस हजार करोड़ के पार पहुंच गया है.

सरकार ने पिछले बजट में राजस्व घाटा 3.9 फीसदी तक ले आने का अनुमान रखा था. लेकिन एक तो सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी बेचने से उम्मीद से कम कमाई हुई है. वहीं सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के साथ-साथ वन रैंक वन पेंशन के लिए अतिरिक्त प्रावधान करने के मोर्चे पर भी परेशानी है. इसका हल सरकार किस तरह निकालती है, ये तो 29 फरवरी के बजट से साफ हो सकेगा. साल 2015-16 में आयकर और कॉरपोरेट टैक्स जैसे डायरेक्ट टैक्स से कमाई में भी 40 हजार करोड़ की कमी आने का अनुमान है. हालांकि पेट्रोल और डीजल पर लगातार एक्साइज ड्यूटी बढ़ाकर और सर्विस टैक्स जैसे इनडायरेक्ट टैक्स से सरकार किसी तरह तय लक्ष्य के मुताबिक कमाई कर पाएगी. काले धन के मोर्चे पर भी सरकार उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर सकी. विपक्ष के आरोपों के बीच उद्योग जगत भी दबे मुंह कह रहा है कि योजनाएं जारी करने से ज्यादा उनके अमल पर ध्यान देने की जरूरत है.

वोटों की गुल्लक भरने वाली सियासत!

‘कांइयापन’ के ‘स्विंग’ से अक्सर हम भोले हार जाते हैं! वोटों की गुल्लक को भरने के लिए रथयात्रा निकाले गए. दो भाइयों को हिन्दू और मुसलमान में बांटा गया. तहजीब पर कई जगहों पर दंगों के रूप में तमाचे पड़े. ये देश अंदर और बाहर से आग में धधकने लगा. कई जगहों पर इंसानियत को गहरे जख्म मिले. और फिर शुरू हुई वोटों की फसल काटने का सिलसिला..हर चुनाव में.. या जब आर्थिक नाकामी घेरती है तो राष्ट्रभक्ती जागती है. गाय भक्ती तो बिहार चुनाव में जगी ही थी. उससे पहले यूपी विधानसभा चुनाव में लव जिहाद का लिटमस टेस्ट फेल हुआ था.

‘हम भारत के लोग’ पता नहीं कब जाति, धर्म और ‘हुंकार’ पर समझदार होंगे. हम कब भूख, भय और भ्रष्टाचार पर सही समय पर सही निर्णय लेंगे? हम कब वोट की चोट को व्यवस्था के कोढ़ पर मारेंगे? मुझे समझ नहीं आता कि हम कब सच्चे अर्थों में ‘लोकतंत्र का राजा’ बनेंगे?


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