संघ द्वारा संचालित मोदी सरकार की पक्षपात कोई नई बात नहीं है लेकिन नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के अध्ययन से यह बात खुलकर सामने आयी है कि संघी सरकार केवल मुसलमानों और दलितों के खिलाफ कार्यवाही करती है और उनपर आसानी से देशद्रोह का आरोप लगा देती है लेकिन चरमपंथी सवर्ण हिंदूओ के मुकाबले में गीदड़ बन जाती है और उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की जाती है।
नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी से प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक़, मृत्युदंड पाने वालों में कुल 75 फ़ीसदी और चरमपंथ को लेकर दी गई फांसी में 93.5 फ़ीसदी सज़ा दलितों और मुस्लिमों को मिली है। ऐसे में पक्षपात का मुद्दा उभरता है।
मालेगांव धमाकों का उदाहरण देते हुए कुछ लोग यह आरोप लगाते हैं कि अगर चरमपंथी गतिविधियों में सवर्ण हिंदुओं के शामिल होने का मामला हो तो सरकार सख़्ती नहीं दिखाती है।
बेअंत सिंह के हत्यारों को फांसी देने की जल्दी नहीं है। राजीव गांधी के हत्यारों की सज़ा कम कर उसे उम्रक़ैद में तब्दील कर दिया गया है। इन लोगों को भी चरमपंथ का दोषी पाया गया था। लेकिन सबको समान क़ानून से कहां आंका जा रहा है?
इन सबमें मायाबेन कोडनानी को छोड़ ही दें, जिन्हें 95 गुजरातियों की हत्या के मामले में दोषी पाया गया था, लेकिन वे जेल में भी नहीं हैं।
तो क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि बीजेपी और आरएसएस मिलकर लोकतंत्र को कुचल रहे है और भारत को हिंदू राष्ट्र में बदलना चाहते है। इसी कारण जो भी उनकी विचारधारा के अनुसार नहीं बोलता उसपर हमला शुरू कर दिया जाता है इस प्रकार अभिव्यक्ति की आजादी खतम होती जा रही है।
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